तंबाकू नियंत्रण की नीति में हम जरदा खाने वाले व्यक्ति को भूल गए
punjabkesari.in Thursday, Sep 18, 2025 - 05:01 PM (IST)

नई दिल्ली/टीम डिजिटल। भारत के लाखों मज़दूरों और मेहनतकश तबकों के लिए ज़रदा, खैनी और गुटखा कोई शौक नहीं, बल्कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी का एक जरूरी हिस्सा बन चुका है। भागलपुर की गलियों में एक ठेले के पास बैठे एक मज़दूर की कहानी इसका प्रमाण है — जिसकी उंगलियों पर ज़रदा की लालिमा है, जबड़ों में दर्द बना रहता है, लेकिन उसे छोड़ना उसके लिए एक लग्ज़री जैसा है। वह दिन में 12-14 घंटे बोरे ढोने का काम करता है और 5 रुपये की ज़रदा की पुड़िया ही उसका “एनर्जी बूस्टर” है।
गरीब का सहारा बना सस्ता ज़हर
गांवों की चाय की दुकानों, फैक्ट्रियों और निर्माण स्थलों पर लाखों लोग धूम्रपान-रहित तंबाकू का सेवन करते हैं। सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट कार्तिक वशिष्ठ के अनुसार, ये लोग मज़े के लिए नहीं, बल्कि थकावट मिटाने और ताकत पाने के लिए ऐसा करते हैं। गुटखा, खैनी, ज़रदा जैसे उत्पाद आसानी से उपलब्ध हैं और इनमें TSNAs (तंबाकू-संबंधी नाइट्रोसामाइन) जैसे कैंसरजनक रसायनों की उच्च मात्रा पाई जाती है। यही भारत में मुंह के कैंसर की बेतहाशा बढ़ती घटनाओं का एक बड़ा कारण है।
सुरक्षित विकल्पों पर रोक, ज़हरीले उत्पाद खुले बाजार में
ताज्जुब की बात यह है कि जो विकल्प कम हानिकारक हो सकते हैं — जैसे निकोटीन पैच, कम-जोखिम वाले मौखिक तंबाकू उत्पाद — उन्हें या तो प्रतिबंधित कर दिया गया है या अवैध मान लिया गया है। वहीं ज़रदा, गुटखा जैसे जहरीले उत्पाद हर नुक्कड़ पर बिकते हैं, बिना किसी गुणवत्ता नियंत्रण के।
जेनेवा से उठी आवाज़ — "हमारे बारे में कुछ भी, हमारे बिना नहीं" हाल ही में जेनेवा में हुए तंबाकू नियंत्रण सम्मेलन में उपभोक्ताओं ने प्रदर्शन किया। उन्होंने उन संस्थाओं को चुनौती दी जो ब्लूमबर्ग जैसे दानदाताओं के प्रभाव में आकर सुरक्षित विकल्पों पर प्रतिबंध की मांग कर रहे थे। प्रदर्शनकारियों का नारा था —
“हमारे बारे में कुछ भी, हमारे बिना नहीं।” ये आवाज़ें भारत जैसे देशों की सच्चाई को उजागर करती हैं, जहां नीतियां तो उपभोक्ताओं के नाम पर बनती हैं, लेकिन बिना उनकी भागीदारी के।
‘लती’ नहीं, विवश हैं ये उपभोक्ता
आलोचक अक्सर कहते हैं कि तंबाकू उपयोगकर्ता “लती” होते हैं और सही निर्णय नहीं ले सकते। लेकिन यह धारणा भ्रामक है। नशा कोई सोचने-समझने की क्षमता को खत्म नहीं करता, बल्कि यह दिखाता है कि उनके पास स्वस्थ विकल्प उपलब्ध नहीं हैं।
समावेश की कमी, असली चुनौती
भारत में आशा कार्यकर्ताओं और स्थानीय प्रभावशाली लोगों के सहयोग से स्वास्थ्य अभियानों में शानदार सफलता मिली है। लेकिन तंबाकू उपयोगकर्ताओं को नीति-निर्माण में शामिल नहीं किया जाता। उन्हें केवल समस्या की तरह देखा जाता है, समाधान का हिस्सा नहीं।
क्या नियमन ही रास्ता है?
स्वीडन का उदाहरण बताता है कि नियमन से सुरक्षित उत्पाद उपलब्ध कराए जा सकते हैं। वहां "Snus" नामक उत्पाद TSNA और बैक्टीरिया स्तर की सख़्त निगरानी के बाद बाज़ार में आता है। भारत में इसके विपरीत, SLT उत्पादों में निकोटीन का स्तर असमान होता है और उनमें माइक्रोबियल लोड अधिक पाया जाता है।
वहीं डॉ. सुनीला गर्ग (पूर्व अध्यक्ष, NIHFW) कहती हैं: “हर उत्पाद को बाजार में आने से पहले दवा की तरह परीक्षण और पंजीकरण की प्रक्रिया से गुजरना चाहिए।”
जब तक ग़रीब उपभोक्ताओं की आवाज़ नीति निर्माण का हिस्सा नहीं बनती, तब तक यह तंबाकू नियंत्रण नहीं, बल्कि सामाजिक असमानता का प्रतीक रहेगा। और इस चुप्पी की कीमत हम कैंसर वार्डों, सर्जरी थियेटर और टूटती ज़िंदगियों में चुका रहे हैं।