संस्कृत में समकालीन चेतना के वाहक: डॉ. महेश चंद्र शर्मा गौतम की रचनायात्रा

punjabkesari.in Monday, Sep 01, 2025 - 06:12 PM (IST)

नई दिल्ली/टीम डिजिटल। संस्कृत साहित्य को समकालीन संदर्भों से जोड़ने वाले जिन चुनिंदा रचनाकारों का उल्लेख किया जाता है, उनमें डॉ. महेश चंद्र शर्मा गौतम का नाम अत्यंत सम्मान और आदर के साथ लिया जाता है। हाल ही में नेपाल की राजधानी काठमांडू में आयोजित विश्व संस्कृत सम्मेलन (28 अगस्त 2025) में उनकी नवीनतम कृति ‘मा वीरा विस्मृता भूवन्’ का विमोचन इस बात का साक्ष्य है कि 75 वर्ष की आयु में भी यह साहित्यकार कितना सक्रिय और प्रासंगिक बना हुआ है। यह ग्रंथ भारत के शौर्य गाथाओं को संस्कृत में प्रस्तुत करता है — 1948 से लेकर कारगिल युद्ध और बालाकोट एयर स्ट्राइक तक।

डॉ. महेश गौतम का जन्म 24 दिसंबर 1949 को पंजाब के पटियाला में हुआ। उनका पैतृक गांव हरियाणा के हिसार जिले की नारनौंद तहसील स्थित भैणी अमीरपुर है। उन्होंने शास्त्री, एम.ए. (संस्कृत और हिंदी), ओ.टी. और पीएच.डी. की उपाधियां प्राप्त कीं और 1968 से अध्यापन कार्य में संलग्न होकर शिक्षा और साहित्य सेवा का मार्ग अपनाया। आज भी वे पटियाला के सनौरी गेट स्थित गौतम मार्केट में अपने स्थायी निवास से सृजनशील जीवन जी रहे हैं।

संस्कृत भाषा में उनके द्वारा रचित ‘वैशाली’, ‘सुनयना’, ‘नीरजा’, ‘सुप्रभातं प्रतीक्ष्यते’, ‘अरुणा’, और ‘मा वीरा विस्मृता भूवन्’ जैसे उपन्यास सामाजिक यथार्थ, नारी चेतना, पारिवारिक विघटन, बेरोजगारी, नशाखोरी और राष्ट्रीय गौरव जैसे विषयों को केंद्र में रखते हैं। ‘नीरजा’ में नारी शोषण और पारिवारिक दमन, जबकि ‘सुनयना’ में बाल मनोविज्ञान और आधुनिकता का द्वंद्व चित्रित हुआ है। ‘सुप्रभातं प्रतीक्ष्यते’ एक चायवाले के बेटे के केंद्रीय मंत्री बनने की प्रेरक कथा है, जो युवाओं को सशक्त बनाती है।

हिंदी और पंजाबी में भी उन्होंने ‘स्वातन्त्र्य समर’, ‘अधूरा आदमी’, ‘क्षितिज की तलाश’, ‘श्री गुरु नानक देव चरित’ जैसी रचनाएं दी हैं, जिनमें राष्ट्रीय चेतना और मानवीय संवेदना का सुंदर समन्वय है। उनके साहित्य को साहित्य अकादेमी पुरस्कार (2020), शिरोमणि संस्कृत साहित्यकार सम्मान (2011), कालिदास पुरस्कार, बाणभट्ट पुरस्कार, और कविसपर्या सम्मान (2024) जैसे कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाज़ा गया है।

देश के अनेक विश्वविद्यालयों में उन पर शोध कार्य हो रहे हैं, जो उनके साहित्यिक कद को सिद्ध करते हैं। वे केवल लेखक नहीं, एक ऐसे द्रष्टा हैं जिन्होंने संस्कृत भाषा को शास्त्रों की सीमाओं से बाहर निकालकर समाज, राष्ट्र और समय के सवालों से जोड़ा है।

आज जब युवा पीढ़ी संस्कृत से दूर होती जा रही है, डॉ. गौतम जैसे रचनाकार इस प्राचीन भाषा में नये संदर्भों की स्थापना कर रहे हैं। उनकी साहित्यिक यात्रा केवल व्यक्तिगत नहीं, वह एक सांस्कृतिक मिशन बन चुकी है — जिसमें संस्कृत भविष्य की भाषा बनकर सामने आती है, न कि केवल अतीत की।


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kahkasha

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